भारतीय साहित्य -----अध्ययन की समस्याएँ ...
भारतीय साहित्य अपने -आपमें इतना विशाल है कि इसके आरम्भ और अंत को जानना असंभव तो नहीं है मगर बहुत कठिन है। इसे समझने के लिए हमें अपने -आप को प्रश्न करना होगा कि भारत है क्या? उसका सारतत्त्व क्या होता है, वे किस प्रकार की शाक्तिया हैं ,किन-किन चीजों से भारत का निर्माण हुआ है और वर्त्तमान समय में सारी दुनिया को प्रभावित करनेवाले प्रमुख तत्वों के साथ उनका सम्बन्ध क्या है? यह विषय अत्यंत विशाल है और इसके अंतर्गत केवल भारत ही नहीं उस से बाहर के तमाम मानवीय व्यापार आ जाते हैं। इस दुनिया में किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह अकेले संपूर्ण विषय के साथ न्याय कर सकता है। मगर कुछ ख़ास विषयों जैसे भारतीय संस्कृति, सभ्यता, धर्म, दर्शन,अध्यात्मिकता आदि विषयों को आकलन करके भारतीय साहित्य में वर्णित विषयों के साथ कामोबेशी रूप से न्याय किया जा सकता है।
भारत सामासिक-संस्कृतिक देश है. परन्तु इस सामासिक -व्यक्तित्व के विकास के पीछे कैसे इस राष्ट्र ने प्रयास किया है , उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू कौन -से हैं और उसकी सुदृढ़ एकता कहाँ छिपी हुई है इसे समझना अत्यंत आवश्यक है. भारत में बसने वाली कोई जाती यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के समस्त मन और विचारों पर उसी का एकाधिकार है। भारत आज जो कुछ है उस पर भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का अधिकार है।यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार सबके सब अधूरे रह जाएँगे. अस्तु:भारत को समझे बिना भारतीय - साहित्य को समझना असंभव है।
भारतीय साहित्य को आत्मसाथ करने के लिए जैसे उसकी संस्कृति का ज्ञान अवश्याक है ; वैसे ही इसके भाषाओं का ज्ञान भी रहना जरूरी है।प्रत्येक प्राचीन जाती का संस्कार, उसकी आत्मा और उसके प्राण उसकी अपनी भाषा में बसते हैं।भारत की आत्मा और भारत के सूक्ष्म संस्कारों का निवास संसकृत में है जिस संस्कृत - साहित्य पर जितना ग्रहण उत्तरवालों का है, उतना ही दक्षिणात्यों का भी है।प्राचीन काल में सारा भारत संस्कृत को ही अपनी साहित्य भाषा मानता था . आज भी यही उपजीव्य - भाषा है।भारत की आधुनिक भाषाओं में उन्नति के साथ-साथ नए शब्द बनाने की शक्ति समाप्त हो गयी है। अब जो भी नया शब्द बनता है वह संस्कृत पर आघ्रुत होता है।तभी हिन्दी की सभी भाषाएँ एक हैं ; क्योंकि उनके शब्द एक हैं, उनकी तर्ज, भंगिमा और अदाएँ एक हैं तथा वे एक ही सपने का आख्यान अलग-अलग लिपियों में करते हैं।उत्तर भारत की सभी भाषाएँ संस्कृत से निकलकर विक्सित हुई हैं।तेलुगु,कन्नड़ और मलयालम भी प्राचीन तमिल से ही निकली है। भारतीय-साहित्य के अध्ययन-कर्ता को संस्कृत का ज्ञान होना परमावश्यक है वरना उसे अनूदित ग्रन्थों की ओर मुँह ताकना पड़ता है; जो एक अलग-समस्या से पीड़ित है।
अनूदित साहित्य की रचना अपने आपमें एक नवीन सृजन ही है।अनुवाद के सामने चाहे विषय- वस्तु तैयार रहता है पर उसे अनूदित भाषा में ढालने के लिए जिस प्रतिभा, बौद्दिकता,शैली-पटुता व समझ की आवश्यकता है; वह कम ही अनुवादक के पास मौजूद है। इन गुणों के अभाव में अनुवाद-कार्य हास्यास्पद बनकर रह जाता है।उदाहरण के लिए यदि बंगला शब्द 'आगुनेर -फुलकी' को 'आग पार सेंका हुआ फुल्का' के रूप में अनुवाद करेंगे तो भ्रमित-वातावरण की ही सृष्टि होगी।लियो टालस्टाय की पुस्तक 'वार एंड पीस' का बंगला अनुवाद या डॉ जीवागो का हिंदी अनुवाद पाठक को उसे समरसता के स्टार तक नहीं ले जा सकता जो क्षमता मौलिक ग्रंथों में है।पर दूध का स्वाद छाछ से मिठाने की आवश्यकता आ ही पड़े तो अनूदित ग्रन्थ का आश्रय लेना पड़ता है। भारतीय साहित्य में वर्णित अनेक प्रान्तों की संस्कृति-सभ्यता,रीति-रिवाज,धर्म-अंधविश्वास को तो भाषा में समझी जा सकती है जिसमें मौलिक रूप से ग्रन्थ लिखा गया है; वर्ना अनुदित-साहित्य के माध्यम से वह समझ सामरस्य के स्टार पर घनीभूत नहीं हो पाता।
अनेक उदहारण द्रष्टव्य है कि पश्चिम के विद्वान जब भारत आए तब यहाँ के साहित्य को समझने के लिए वे यहाँ के तौर-तरीके खान-पान,रीति-रिवाज,रस्म आदि से परिचित हुए। वे तन से पश्चिमी अवश्य थे पर मन से भारतीय बनने की कोशिश की तभी एक से बढ़कर एक साहित्य की रचना हुई। यह उदाहरण मुस्लिम-कवियों पर भी लागू होता है।भारतीय-साहित्य की ऐहिक धारा मुस्लिम कवियों को अनुकूल मालुम हुई थी, इसका प्रमाण हिंदी में,संस्कृत के अनुकरण पर रहीम ने 'बरवा-नायिका' नामक नायिका- भेद की पहली पुस्तक लिखी। वास्तव में मुसलमान-कवियों ने भारतीय साहित्य की उस शाखा की सेवा अधिक की जो ऐहिक और अनाद्यात्मिक थी।
भारतीय विचारधारा की सबसे बड़ी देन उसका आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण है जो अपने विभिन्न रूपों में भारतीय संस्कृति की एकता की घोषणा करता है।भारत की भावात्मक एकता का मूलाधार-स्तम्भ विभिन्न भाषाओं का विपुल साहित्य है,जिसमे हमें पग-पग पर भारतीयता के दर्शन होते है।भाषागत एवं विषयगत तो भिन्नता दृष्टिगत होती है,वह केवल प्रयोगगत है,केवल अभिव्यक्ति के माध्यम या पद्दति पर आधृत है। किन्तु उसका ह्रदय एक ही है जो भारतीय है।भारतीय साहित्य अध्ययन के लिए हमें भारतीय वांड्मय के विकास की रूपरेखा को समझना होगा जो सभी भाषाओं में सामान रूप से लक्षित होती है। सभी आधुनिक भाषाओ में साहित्य का प्रारंभ लगभग 10 वी शतियों में हुआ और इस हजार वर्षों के साहित्य-चार युगों में विभक्त किया जाता है। रामायण, महाभारत,श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों का तथा इस्लामी संस्कृति के प्रसार का प्रभाव सभी भाषा-साहित्यों पर सामान रूप से लक्षित होता है। मध्य युग में भक्ति आन्दोलन से प्रभावित रचनाएँ ,प्रत्येक भाषा में दृष्टिगत होती है।19 वी शती पुनर्जागरण काल में संस्कृति,अध्यात्मवाद के साथ-विभिन्न राजनीतिक धाराओं का प्रभाव,रोमांटिक काव्यधारा आदि समान साहित्यिक धाराओं के दर्शन होते हैं। अतः स्पष्ट है की भारतीय साहित्य के विकास की रूपरेखा का सम्यक अध्ययन भी अध्येता के लिए उपयोगी है।
(संकलन)
भारत सामासिक-संस्कृतिक देश है. परन्तु इस सामासिक -व्यक्तित्व के विकास के पीछे कैसे इस राष्ट्र ने प्रयास किया है , उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू कौन -से हैं और उसकी सुदृढ़ एकता कहाँ छिपी हुई है इसे समझना अत्यंत आवश्यक है. भारत में बसने वाली कोई जाती यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के समस्त मन और विचारों पर उसी का एकाधिकार है। भारत आज जो कुछ है उस पर भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का अधिकार है।यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार सबके सब अधूरे रह जाएँगे. अस्तु:भारत को समझे बिना भारतीय - साहित्य को समझना असंभव है।
भारतीय साहित्य को आत्मसाथ करने के लिए जैसे उसकी संस्कृति का ज्ञान अवश्याक है ; वैसे ही इसके भाषाओं का ज्ञान भी रहना जरूरी है।प्रत्येक प्राचीन जाती का संस्कार, उसकी आत्मा और उसके प्राण उसकी अपनी भाषा में बसते हैं।भारत की आत्मा और भारत के सूक्ष्म संस्कारों का निवास संसकृत में है जिस संस्कृत - साहित्य पर जितना ग्रहण उत्तरवालों का है, उतना ही दक्षिणात्यों का भी है।प्राचीन काल में सारा भारत संस्कृत को ही अपनी साहित्य भाषा मानता था . आज भी यही उपजीव्य - भाषा है।भारत की आधुनिक भाषाओं में उन्नति के साथ-साथ नए शब्द बनाने की शक्ति समाप्त हो गयी है। अब जो भी नया शब्द बनता है वह संस्कृत पर आघ्रुत होता है।तभी हिन्दी की सभी भाषाएँ एक हैं ; क्योंकि उनके शब्द एक हैं, उनकी तर्ज, भंगिमा और अदाएँ एक हैं तथा वे एक ही सपने का आख्यान अलग-अलग लिपियों में करते हैं।उत्तर भारत की सभी भाषाएँ संस्कृत से निकलकर विक्सित हुई हैं।तेलुगु,कन्नड़ और मलयालम भी प्राचीन तमिल से ही निकली है। भारतीय-साहित्य के अध्ययन-कर्ता को संस्कृत का ज्ञान होना परमावश्यक है वरना उसे अनूदित ग्रन्थों की ओर मुँह ताकना पड़ता है; जो एक अलग-समस्या से पीड़ित है।
अनूदित साहित्य की रचना अपने आपमें एक नवीन सृजन ही है।अनुवाद के सामने चाहे विषय- वस्तु तैयार रहता है पर उसे अनूदित भाषा में ढालने के लिए जिस प्रतिभा, बौद्दिकता,शैली-पटुता व समझ की आवश्यकता है; वह कम ही अनुवादक के पास मौजूद है। इन गुणों के अभाव में अनुवाद-कार्य हास्यास्पद बनकर रह जाता है।उदाहरण के लिए यदि बंगला शब्द 'आगुनेर -फुलकी' को 'आग पार सेंका हुआ फुल्का' के रूप में अनुवाद करेंगे तो भ्रमित-वातावरण की ही सृष्टि होगी।लियो टालस्टाय की पुस्तक 'वार एंड पीस' का बंगला अनुवाद या डॉ जीवागो का हिंदी अनुवाद पाठक को उसे समरसता के स्टार तक नहीं ले जा सकता जो क्षमता मौलिक ग्रंथों में है।पर दूध का स्वाद छाछ से मिठाने की आवश्यकता आ ही पड़े तो अनूदित ग्रन्थ का आश्रय लेना पड़ता है। भारतीय साहित्य में वर्णित अनेक प्रान्तों की संस्कृति-सभ्यता,रीति-रिवाज,धर्म-अंधविश्वास को तो भाषा में समझी जा सकती है जिसमें मौलिक रूप से ग्रन्थ लिखा गया है; वर्ना अनुदित-साहित्य के माध्यम से वह समझ सामरस्य के स्टार पर घनीभूत नहीं हो पाता।
अनेक उदहारण द्रष्टव्य है कि पश्चिम के विद्वान जब भारत आए तब यहाँ के साहित्य को समझने के लिए वे यहाँ के तौर-तरीके खान-पान,रीति-रिवाज,रस्म आदि से परिचित हुए। वे तन से पश्चिमी अवश्य थे पर मन से भारतीय बनने की कोशिश की तभी एक से बढ़कर एक साहित्य की रचना हुई। यह उदाहरण मुस्लिम-कवियों पर भी लागू होता है।भारतीय-साहित्य की ऐहिक धारा मुस्लिम कवियों को अनुकूल मालुम हुई थी, इसका प्रमाण हिंदी में,संस्कृत के अनुकरण पर रहीम ने 'बरवा-नायिका' नामक नायिका- भेद की पहली पुस्तक लिखी। वास्तव में मुसलमान-कवियों ने भारतीय साहित्य की उस शाखा की सेवा अधिक की जो ऐहिक और अनाद्यात्मिक थी।
भारतीय विचारधारा की सबसे बड़ी देन उसका आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण है जो अपने विभिन्न रूपों में भारतीय संस्कृति की एकता की घोषणा करता है।भारत की भावात्मक एकता का मूलाधार-स्तम्भ विभिन्न भाषाओं का विपुल साहित्य है,जिसमे हमें पग-पग पर भारतीयता के दर्शन होते है।भाषागत एवं विषयगत तो भिन्नता दृष्टिगत होती है,वह केवल प्रयोगगत है,केवल अभिव्यक्ति के माध्यम या पद्दति पर आधृत है। किन्तु उसका ह्रदय एक ही है जो भारतीय है।भारतीय साहित्य अध्ययन के लिए हमें भारतीय वांड्मय के विकास की रूपरेखा को समझना होगा जो सभी भाषाओं में सामान रूप से लक्षित होती है। सभी आधुनिक भाषाओ में साहित्य का प्रारंभ लगभग 10 वी शतियों में हुआ और इस हजार वर्षों के साहित्य-चार युगों में विभक्त किया जाता है। रामायण, महाभारत,श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों का तथा इस्लामी संस्कृति के प्रसार का प्रभाव सभी भाषा-साहित्यों पर सामान रूप से लक्षित होता है। मध्य युग में भक्ति आन्दोलन से प्रभावित रचनाएँ ,प्रत्येक भाषा में दृष्टिगत होती है।19 वी शती पुनर्जागरण काल में संस्कृति,अध्यात्मवाद के साथ-विभिन्न राजनीतिक धाराओं का प्रभाव,रोमांटिक काव्यधारा आदि समान साहित्यिक धाराओं के दर्शन होते हैं। अतः स्पष्ट है की भारतीय साहित्य के विकास की रूपरेखा का सम्यक अध्ययन भी अध्येता के लिए उपयोगी है।
(संकलन)
No comments:
Post a Comment