भारतीय साहित्य : नारीवादी चेतना
राधाकृष्ण.मिरियाला
पुरुष प्रधान समाज में स्त्रीयों का दमन कोई नयी बात नहीं है आरम्भ से ही स्त्री कुंताये लिए जाती आ रही है उसकी इच्छाओं, आशाओं, आकांक्षाओं , का सदा से हे दमन होता आ रहा है
कई विद्वानों , मनीषियों जैसे गांधीजी के कुशल मार्गदर्शन एवं अनथक प्रयासों के चलते स्त्री ने अपनी शक्ती को पहचाना एवं समाजके विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पहचान स्थापित की
'मनुस्मृति' में कहा गया है -----
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता
यत्रोतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वस्तात्राफलता: क्रिया:"
मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में --"संसार में जो सत्य है सुंदर है मैं उसे स्त्री का प्रतीक मानता हूँ
" जयशंकर प्रसाद की ' कामायनी ' में कहते हैं -
"नारी तुम केवल श्रद्दा हो ,
विश्व रजन नभ -पग-तल में
पीयूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में "
इस प्रकार हमारे साहित्यकारों ने समाज में स्त्री का स्टार बहुत ऊंचा माना है
इसलिए साहित्य जगत में सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा इनको आधुनिक ' मीरा ' कहा जाता है
अमृत प्रीतम जैसी साहित्य का पर्याय बन चुकी है
समय व समाज के परिवर्तन के साथ-साथ नारी की मात्रु-सत्तात्मक अधिकार का उन्मूलन ,पुरुष का उस पर अधिकार व सामाजिक स्वेच्छार की त्रासदी की विडम्बना नारी को झेलना पडा
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपनी ' नारी का मूल्य ' पुस्तक में कुरैश के लोगों के द्वारा अपनी कन्याओं का , मक्का के समीप अबूदिलाया पहाड़ पर वध किया जाने का उल्लेख किया है
वैदिक युग में स्त्री की स्तिथि बहुत ऊंची थी। ऐसा कहा जा सकता है की भारतीयों के सभी आदर्श स्त्री रूप में पाये जाते हैं । विध्या का आदर्श 'सरस्वती' में, धन का 'लक्ष्मी' में शक्ती का 'दुर्गा' में, सौन्दर्य का 'रति' में, पवित्रता 'गंगा' में, इतना ही नहीं सर्वव्यापी इश्वर को भी ' जगतजननी ' के नाम से सुशोभित किया गया है । उस युग में चाहे घर हो या परिवार , हर जगह नारी की स्थिति बहुत ही अच्छी थी ,वह बहुत आगे थी। 'यजुर्वेद' में ' सोमपुष्टा ' कहा गया है । बालिकाओं के लिए सिख्स ग्रहण करना उतना ही आवश्यक था जितना बालकों के लिए बाल विवाह की प्रथा नहीं थी ।
'पूर्ण ब्रह्मचार्येण कन्या युवानान विन्दते पतिम ।'
(अथर्ववेद - ११/१५/१८)
आत्मिक विकास की दृष्टी से भी स्त्रीयां पुरुषों के साथ एक ही क्षेत्र में विचरण करती थी ।
आद्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ धार्मिक क्षेत्र में भी स्त्री का पुरुष के बराबर ही अधिकार था । रामचन्द्रजी के द्वारा किये गए राजसूय यज्ञ में सीताजी की उपस्थिति बहुत आवश्यक थी । इसलिए स्वर्णमूर्ती को उनके स्थान पर रख कर यज्ञ की पूर्ती की गयी ।स्वयं ब्रह्मा
ने स्वीकार किया है की देवी ही इस ब्रह्माण्ड को धारण करती है । 'अथर्ववेद ' में स्त्री को साम्रज्ञ्नी का नाम दिया गया है । भारत के मध्यकाल में भी स्त्रीयों के अगाध पंडिता होने के दृष्टांत पाये जाते हैं । जिस समय शंकराचार्य ने अपने समय के प्रकांड मंडन मिश्र को परस्त कर दिया उस समय उसकी स्त्री विद्याधरी ने शंकराचार्य को कामासास्त्र विषय में परास्त किया । स्त्री का यह युग भारत के इतिहास का स्वर्ण युग कहा जा सकता है । एक विद्वान का कथन है कि यदि किसी देश के सांस्कृतिक स्टार का पता लगाना है तो पहले या देखो कि स्त्रीयों की अवस्था कैसी है ।
महाभारत काल विरोधाभासों से पूर्ण है । वहाँ नारी सम्मान का पात्र भी है । और सब पापों का जड़ भी ।बौद्द साहित्य व जातक कथाओं में नारी को सार्वजनिक उपयोग की वस्तुके रूप में चित्रित किया गया है आगे चलकर रीतिकाल व मुसलामानों के आगमन से जो गीत,मुक्तक, सवैयें, कवित्त कुंडलियों में नारी सौन्दर्य प्रेम के मांसल चित्रण व नारी स्थिति का चित्रण किया गया, उससे नारी लौकिक सौन्दर्य सम्पन्ना भोग्या मानी गयी ।
यह दुःख की बात है कि आधुनिक काल तक आते-आते स्त्री के दिव्यगुण धीरे-धीरे उसके अवगुण बनने लगे।साम्राज्ञी से वह धीरे-धीरे आश्रित बन गयी ।नारी की सामाजिक स्थिती अपने पतन की चरम सीमा तक पहुँच चुकी थी ।
वैदिक युग का दृष्टिकोण जो स्त्री के प्रति दिव्य कल्पनाओं तथा पुनीत भावनाओं से परिवेष्टित था अब पूर्णतया बदल चुका था ।यह युग तो जैसे स्त्रीयों की गिरावट का युग था।उनके मानसिक तथा आत्मिक विकास के द्वार पर ताला लगा दिया गए।
उनकी साहित्यिक उन्नति के मार्ग पर अनेकों प्रतिबन्ध लगा दिए गए। 'स्त्री शूद्रो नाधीयातम ' जैसे वाक्य रच कर उसे शूद्र की कोटि में रख दिया ।स्त्री को संस्कार के अतिरिक्त और सभी संस्कारों से वंचित कर दिया।
18 वीं शताब्दी में स्त्रीयों की हालत जितनी खराब थी उसमे 19 वीं सदीमें कुछ सुधार आया धार्मिक आडम्बर ,रूढीगत विचार जैसे अंधविश्वासों का बोलबाला चारों तरफ इस प्रकार निर्मित कर दिया था कि उसे तोड़ सकना सहज संभव नहीं था। इस बर्बर के प्रति प्रति क्रिया स्वरुप राजा राममोहन राय हमारे सामने आये जो नारी वकालत लगातार करते रहे ।नारी पर होनेवाले अनेक सामाजिक अत्याचारों को उन्होंने ख़तम किया और स्त्री सिक्षा का आरंभ किया।
द्विवेदी युग में सुधारवादी आंदोलनों के माध्यम से कवि का ध्यान नारी -अस्मिता की ओर आकर्षित हुआ और पुरुष की साझीदार नारी अपने सम्पूर्ण मानसिक एवं आध्यात्मिक सौन्दर्य के साथ काव्य का विषय बनी। इस युग के साहित्यकार राम नरेश त्रिपाटी , हरिऔद , मैथिली शरण गुप्त ने नारी के प्रति इसी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। नयी कविता तक आते-आते नारी हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी करने लगी थी। डा.हरिचरण शर्मा की दृष्टि में -आज नारी दलित द्राक्षा के सामान निचुड़ भले ही जाय किन्तु पुरुषों को भी पूर्णतः निचोड़ने में विश्वास करती है। नारी जीवन की अनेक समस्याओं और अनेक प्रशनों को इस काल के साहित्यकारों ने साहित्य का विषय बनाया।
आज नारीवाद वैश्विक्वाद बनगया है जिसके माध्यम से विश्व की नारियाँ व उनकी समस्याएँ आपस में जुडी हुई हैं। इस के द्वारा सहस्राब्दियों से अपने प्रति होते आये अत्याचार व प्रताड़नाओं के विरोध में नारी को अपनी आवाज़ ऊँची करने का अवसर मिला है । भारतीय साहित्य की मुख्य विधाओं में नारीवाद के प्रतिपादन द्वारा जीवन के आर्थिक, राजनीतिक, सामजिक,व्यावहारिक ,शैक्षिक,औद्योगिक आदी क्षेत्रों में नारी सक्रीय भागीदारी बढ़ रही है। नारीवाद 'नारी के सामान भागीदारी से समाज का पुनर्निर्माण ' चाहता है। आज के नारीवादी साहित्य नारी की इच्छाओं -आकाँक्षाओं का दस्तावेज है । नारी की योग्य ,मोहिनी,यथार्थवादी दृष्टि अब अज्ञेय, धर्मवीर प्रसाद, शांता सिन्हा, शकुंतला माधुर,कीर्ती चौदरी की कविताओं में विकसित है-
"फूल को प्यार करो
झरे तो झर जाने दो ,
जीवन का रस लो
देह मन आत्मा की रसना से
जो भरे उसे भार्जाने दो।" -अज्ञेय ...
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी की पहली कहानी के रूप में जिन कहानियों की चर्चा की है उनमें एक लिखिका की कहानी 'बंगमहिला' की 'दुलाईवाली' है ।
बंगमहिला हिंदी की प्रथम कहानी-लेखिका है । यह रचना सन 1907 में की थी । यह कहानी एक हास्य-कथा है जिसमें नारी की स्थिति का वर्णन हुआ है। छायावादी कालमें यदि सुभद्रा कुमारी चौहान ,महादेवी वर्मा को स्त्री-कविता परिवृत्त बड़ा करने का श्रेय है तो छायावादोत्तर काल में जो स्त्री-स्वर उभरें उनमें विशेष हैं - अमृता भारती, शकुन्त माथुर , ज्योत्स्ना मिलन, कांता-चौदरी ,सुनीता जैन, इंदु जैन,मोना गुलाटी ,अर्चना वर्मा आदी ।
20 वीं शताब्दी में कहानियों में समाज की निर्दयता व क्रूरता का जीवंत चित्रण मिलता है।
नारी चित्रण त्याग और सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में हुआ है । इस समय की प्रमुख कहानी लेखिकाएँ श्रीमती विमला देवी चौदरानी, विद्यावती ,राजरानी देवी, चन्द्रप्रभा देवी महरोत्रा , जनकदुलारी देवी , श्रीमती मनोरमा देवी आदि हैं।
नए उपन्यासकार नारी के सन्दर्भ में उसके समकालीन जीवन बोध की अपेक्षा उसके यौन-ग्रसित पक्ष को प्रस्तुत करने में सक्रीय रहे हैं । मृदुला गर्ग का उपन्यास 'चितकोबरा' फनीश्वरनाथ रेणु 'प्लूट बाबू रोड' , नागर का 'नाच्यो बहुत गोपाल' , मन्नूभंडारी का 'आपका बंटी' कृष्ण सोबती का 'सूरजमुखी अँधेरे के ',महेंद्र भल्ला का 'एक पति के नोट्स ',ममता कालिया का 'बेघर' नारी पुरुष के भावहीन संबंधों को उदघाटित करते हैं ।
पंडित नेहरु ने भी 'हिन्दुस्थान की समस्याएँ' में नारी की समस्या को प्रमुख मानकर लिखा है-
"पुरुषों से मैं कहता हूँ कि तुम स्त्रीयों को अपने दास्यत्व से मुक्त होने दे , उन्हें अपने बराबर समझो उन्हें अपने बराबर समझो उन्हें अपने बराबर समझो ।"
पन्तजी कहा --- "मुक्त करो नारी को मानव
चिरावंदिनी नारी को
युग-युग की बर्बरता से
जननी सभी प्यारी को ।"
आज के नए उपन्यासों और कहानीकारों की द्रिश्तीमें नारी युगबोध, भाव बोध बदल गया है।पारंपरिक मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष करती हुई 'Angry Women' मानसिकता ही हिंदी की समकालीन कहानी में व्यंजित हुई है।प्रेमचंद ने अपनी उपन्यासों में नारी का चित्रण ऐसे किया कि सामाजिक अंधविश्वासों के प्रति प्रतिघटित करती है ।उदाहरण-गोदान में 'धनिया' का पात्र मोहन राकेश की 'मिस-पाल', राजेन्द्र यादव की 'छोटे-छोटे-ताजमहल ',उषा प्रियंवदा की 'नागफनी के फूल' ममता कालिया का 'नितांत निजी ' में समकालीन नारी चेतना , नारी जीवन का यथार्थ उभर कर आया है।
मलयालम साहित्य के कवी के .वी. शंकर पिल्लै ने भी अपनी कविता में नारी के प्रति सहानुभूथी झलकाई है-------
उर्मिला/तुम्हारे सघन घुंघराले बाल/लम्बी बाहें / लाल-लाल अधर /और तुम्हारे छोटे-छोटे स्तन /वसंत ऋतु के बीतते-बीतते /उभर आती तुम्हारी सिसकियाँ /मैं फिर एक बार /भूलने को मजबूर हो गया हूँ।
कन्नड़ महिला लेखिकाओं में वीणा-शांतेश्वर का नाम प्रमुख है। इनकी कहानियों में चित्रित आज की महिला की पीड़ा और उसके भीतर धीरे-धीरे पनपनेवाले स्वाभिमान की दुनिया है। पुरुष वर्ग द्वारा किये गए अन्याय और शोषण का चित्रण इनमें होने के बावजूद कहीं भी नारी -स्वातंत्र्य के आन्दोलन जैसी नारेबाजी इनमें दिखाई नहीं पड़ती है। स्थिति को तटस्थ होकर देखने के कारण इनमें एकपक्षीयवाद सुनायी नहीं पड़ता है और इसलिए ये कहानियाँ अधिक प्रभावशाली है।
तेलुगु के प्राचीन महान कवि वेमना अपनी रचनाओं में स्त्री पर जो अत्याचार हो रहे हैं उसके प्रति अपनी कविताओं के जरिये खंडन किया।उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से नारीवादी चेतना में सहयोग नहीं दिया। परन्तु अपना रचना द्वारा स्त्री जाति पर हो रहे अन्यायों के प्रति अपनी आवाज़ उठाई । स्त्री के प्रति प्रेम भावना तथा जीवंविधानों पर प्रकाश डाला।
आधुनिक युग के तेलुगु कवी सुरवरं प्रताप रेड्डी ने कहा कि ----"प्राचीन काल से हिन्दू समाज का चरित्र है ।" सुरवरंएक अभुदयावादी कवि हैं ।उन्होंने अपनी रचनाओं में नारी को महत्वपूर्ण स्थान दिया । तेलुगु में गद्य तिक्कन्ना नाम से प्रसिद्द गुराजादा अप्पाराव तथा दक्षिण भारत के नारी जनोद्दरक वीरेशलिंगम पन्तुलु आदि महापुरुषों ने नारीवादी चेतना के प्रति आन्दोलन छेड़ा और वह सफल भी हुए ।तेलुगु साहित्य के आधुनिक काल में नारी के प्रति सहानुभूति व्यक्त करनेवालों में श्री कन्दुकूरी वीरेशलिंगम पन्तुलु, गुराजाड़ा अप्पाराव , गुडिपुदी. वेंकटाचलम, गोपीचंद, कोदवातीगंटी कुटुम्बराव आदि प्रमुख हैं।आधुनिक युग की स्त्री लेखिकाएँ -इल्लंदल सरस्वती देवी, श्रीदेवी,वासीरेड्डी सीतादेवी आदि गद्य व कथा साहित्य से जुडती हैं तो जयप्रभा .सावित्री ,विमल कोंदापूदी निर्मला आदि काव्य क्षेत्र से जुडी हैं। इनमें जयप्रभा ने अपने काव्य-संग्रह 'सूर्युदु कूड़ा उदयिस्ताडु ' , 'वामनुडि मूड़ोपादम ' "इक्कड कुरिसिना वर्षाम एक्कड़ी मेघानिदी" 'यशोधरा ई वगापेंदुके' आदि में नवीन शब्द ,बिम्ब, प्रतीक और भाषा के माध्यम से पारंपरिक नारी का तिरस्कार ही नहीं करती बल्कि नारीवाद की स्पष्ट अभिव्यक्ती करती हैं । कोंडापूड़ी निर्मला के 'संदिग्ध संध्या '' "नडिचे " , "गेयालू " आदि काव्य संग्रह भी नारीवादी विचारधारा से ओताप्रेत है ।समसामयिक कवी शिवसागर का 'चेल्ली चन्द्रम्मा' गद्दार का "सिरिमल्ले चेट्टूकिन्दा " उल्लेखनीय हैं।
नारीवादी की दृष्टी से तेलुगु के उपन्यासों का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। तेलुगु में नारीवादी साहित्य का नाम लेते ही औलगा का नाम स्मरण आये बिना नहीं रहता । औलगा नारी की सम्पूर्ण स्वेच्छा की प्रबल दावेदार हैं । उनका उपन्यास 'स्वेच्छा' में नारी को सम्पूर्ण स्वेच्छाकान्क्शी के रूप में चित्रित किया है जो नारीवाद की नींव है । इसके बाद औलगा की' सहजा', ' आकाशम लो सगम 'आदि उपन्यासों में भी नारीवाद का शाशाक्त-चित्रण मिलता है । औलगा के बाद मल्लादी सुब्बम्मा का नारी -स्वेच्छा की प्रबल समर्थक के रूप में लिया जाता है । ' वंशाम्कुरम ' , ' कन्नीटि केरटाल वेन्नेले ', 'जीवितगम्यम ' ,'मानवी ' आदि में नारी मुक्ति तथा आर्थिक स्वावलम्बिता का चित्रण मिलता है ।
औलगा की कहानी संग्रह ' राजकीय कथलु ' में भी नारी के मौलिक अधिकारों के हनन के विरोध में लेखिका की अभिव्यक्ति अत्यंत स्पष्ट है । २० वीं सदी के अंतिम दशक में जयधीर तिरुमाला राव के संपादकत्व में 'स्त्रीवाद -कथलु ' 1993 अब्बूरीछाया देवी , तुरगा जानकी रानी , आदी लेखिकाओं ने अपनी कहानी के माध्यम से नारीवाद का झंडा पहराया । आज स्त्रीवादी लेखन के माध्यम से भी नारीवादी चेतना प्रतिध्वनित हो रही है । पश्चिम में वर्जीनिया वूल्फ , मरीना स्वेतएवा, अन्ना अखमतोवा , सिल्विया प्लैथ, ऐन सेक्सटन कवयित्रियाँ अपनी विशिष्ट भाषा -शैली में नारी - चेतना को उजागर कर रही है । समकालीन स्त्री-कवियों में -आसिवासी कवि निर्मला - पुतुल , शुगुफ्ता खान , विस्थापित कश्मीरी -कवयित्री क्षमा-कौल , अनीता वर्मा, मधु शर्मा, नीलेश रघुवंशी , शुभा, कात्यायनी, अनामिका , निर्मला गर्ग व सविता सिंह ,गगन गिल ,तेजि ग्रोवेर आते हैं जिन्होंने स्त्री-संसार के विशिष्ट अनुभव-वृत्तों का सजग आकलन किया है ।
नारीवाद वैश्विकवाद है । यह विश्व की नारियों को और उनकी समस्याओं को आपस में जोड़ने का प्रयास करता है। नारीवाद एक जीवन-दर्शन है ; एक आन्दोलन है जिसके अंतर्गत सभी प्रकार के शोषण विशेषकर नारी-शोषण का विरोध किया जाता है । समाज में समानता तभी स्थापित होगी जब नारी व पुरुष एक दूसरे के अस्तित्व को सम्मान देंगे । BELL HOOKS ने अपनी पुस्तक Activist &Feminist में लिखा है - When Women and Men understand that working to eradicate patriarchal domination is a struggle rooted in the longing to make a world where everyone can live fully and freely,then we know our work to be a gesture of love.let us draw upon that lov to heighten our awareness ,deepen our compassion, intensify our courage and strengthen our commitment.....
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